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Chapter 11 आधुनिकीकरण के रास्ते (Paths to Modernisation) Solutions

Question - 1 : -
मेजी पुनस्र्थापना से पहले की वे अहम घटनाएँ क्या थीं, जिन्होंने जापान के तीव्र आधुनिकीकरण को सम्भव किया?

Answer - 1 : -

जापान में शोगुनों को तोकुगावा शासन प्रणाली के पूर्व समस्त राजसत्ता जापान के सम्राटों के हाथों में केन्द्रित थी। बाद में शोगुनों की शक्ति बढ़ जाने के कारण जापान में दोहरा शासन स्थापित हो गया। अब वास्तविक शक्ति शोगुनों के हाथों में में आ गई थी और वे सम्राट के नाम पर राज्य के समस्त कार्यों को संचालन करते थे परन्तु 250 वर्ष के दीर्घकालीन इस शासनतन्त्र में अनेक दोष उत्पन्न हो गए थे।
1. जापान की पृथक्ता का प्रभाव :
विदेशियों की शक्ति के समक्ष जापानी शासन को झुकना | पड़ा था और उसे अपने द्वार विदेशी व्यापार के लिए खोलने पड़े थे, इस कारण अब शोगुन सत्ता तथा जापानी सरकार के लिए एक गम्भीर समस्या उत्पन्न हो गई। जापान का प्रभावशाली तथा समुराई वर्ग दो गुटों में विभाजित हो गया। 1858 से 1868 ई० के दस वर्षों में एक ओर तो विदेशी विरोध की भावनाओं ने इतना उग्र रूप धारण कर लिया कि जापानी सरकार के लिए कानून और व्यवस्था बनाए रखना असम्भव हो गया और दूसरी ओर उसे विदेशियों के क्रोध का भय लगने लगा था। शोगुनों की शक्ति निरन्तर कम होती जा रही थी और सम्राट की शक्ति को महत्त्व मिलने लगा था। जापान की पृथक्ता की नीति के प्रणेता शोगुन ही थे किन्तु 250 वर्षों से लागु रहने के कारण यह नीति बन गई थी। 1845 ई० में नए जापानी सम्राट कोमई ने पृथक्ता की नीति को मान्यता भी प्रदान कर दी थी लेकिन जब शोगुन ने पेरी तथा हैरिस से सन्धि की तो क्योटो में स्थित सम्राट और उसके दरबारियों ने इस नीति की कटु आलोचना की किन्तु विदेशी शक्ति के सामने शोगुन विवश थे और उसने विदेशियों के लिए जापान के द्वार खोलकर सम्राट लथा सामन्तों का विरोध सहने का निश्चय कर लिया। विदेशियों के लिए देश के द्वार खुलते ही दोहरी शासन प्रणाली के दोष स्पष्ट होने लगे। विदेशी शक्तियाँ शोगुन को ही जापान का सर्वोच्च शासक समझती थीं लेकिन जब विदेशियों तथा शोगुन शासक के मध्य कठिन प्रश्न उत्पन्न हो गए तब शोगुन ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि इन प्रश्नों पर निर्णय लेने से पहले क्योतो में सम्राट से अनुमति लेनी आवश्यक है। विदेशी सोचते थे कि शोगुन का यह तर्क उनको धोखा देने या टाल-मटोल करने के लिए था। दूसरी ओर, जेब प्रश्नों को क्योटों में सम्राट का निर्णय जानने के लिए भेजा जाता तो जापानी जनता यह समझने लगी। कि सम्राट के वास्तविक अधिकारों का प्रयोग शोगुन करते हैं। सदियों बाद जटिल तथा महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का निर्णय के लिए जाना शोगुनों की दुर्बलता का प्रतीक था। यदि शोगुन ने विदेशियों से सन्धि करने से पहले सम्राट का ऐसे महत्त्वपूर्ण विषयों पर विश्वास प्राप्त कर लिया  होता तो शोगुनों की सत्ता समाप्त न होती। यथार्थ में शोगुन इतने निर्बल और शक्तिहीन हो चुके थे। इसके साथ-साथ शोगुनों के दुर्भाग्य से क्योतो राजदरबार में जापान के पश्चिमी कुलीनों विशेषकर ‘सत्सुमा’ तथा ‘चीशू कुलों के नेताओं का भारी प्रभाव था जो तोकुगावा शोगुनों से। ईष्र्या रखते थे; अत: उनके लिए यह सुनहरा अवसर था। इसी समय जापान की आन्तरिक घटनाओं ने आन्तरिक और बाह्य परिस्थितियों पर बहुत गहरा प्रभाव डाला। शोगुन विरोधी सामन्तों तथा कुलों ने शोगुनों को अपमानित करने के विदेशी विरोध की भावनाओं को बड़ी तेजी से फैलाना शुरू कर दिया। इसी बीच स्वयं तोकुगावा कुल में तात्कालिक शोगुन की मृत्यु के बाद नए उत्तराधिकारी के चुनाव तथा पृथक्ता की नीति का परित्याग करने के प्रश्नों पर आपसी मतभेद उत्पन्न हो गया। आन्तरिक विद्रोह तथा विदेशी दबाव के कारण शोगुन शासक को उचित तथा अनुचित का ध्यान नहीं रहा और उसने तुष्टिकरण की नीति अपनानी प्रारम्भ कर दी। शोगुन शासन के विरोधी सामन्तों तथा कुलों के लोग विदेशी विरोध की भावनाओं के कारण अनेक स्थानों पर विदेशियों पर आक्रमण कर चुके थे; अत: जापानी इस हिंसा तथा प्रतिहिंसा के कारण शीघ्र ही विदेशी विरोध की नीति को छोड़ने के लिए बाध्य हुए।
2. शोगुन शासन प्रणाली का पतन :
तोकुगावा शोगुन की निर्बलता के कारण जापान की शासन-व्यवस्था अत्यन्त अस्त-व्यस्त हो गई थी। स्वामिभक्त सेवकों का अभाव, रिक्त राजकोष, दुर्बल रक्षा व्यवस्था आदि अनेक कारणों से शोगुन शासन व्यवस्था दिन-प्रतिदिन कमजोर होती जा रही थी और उसमें इतनी शक्ति नहीं रह गई थी कि वह जापान में विदेशियों के प्रवेश को रोक सके; अतः समय की धारा के सम्मुख शोगुनों को झुकने के लिए बाध्य होना पड़ा और यह समर्पण ही अन्ततः शोगुन के पतन का मूल कारण बना। शोगुन शासन के पतन के प्रमुख कारणों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित हैं

 आन्तरिक असन्तोष :
पश्चिमी राज्यों के जापान में प्रवेश के समय देश में चारों ओर आन्तरिक अव्यवस्था और असन्तोष फैला हुआ था। जापान के अनेक सामन्ती परिवार तोकुगावा शोगुन के परिवार के विरुद्ध हो गए थे। शोगुन ने अपने दण्डात्मक कार्यों से अन्य सामन्त परिवारों को कष्ट पहुँचाया। जापान के एक कानून ‘सान्किन कोताई’ के अनुसार सामन्तों से राजाज्ञा के बिना किले बनाने का अधिकार छीन लिया गया। साथ ही जहाज बनाने और सिक्के ढलवाने के अधिकार से भी उन्हें वंचित कर दिया। विवाह करने के लिए भी उन्हें शोगुन की पहले आज्ञी लेनी पड़ती थी। इन कारणों और कुछ अन्य कारणों से सामन्तों ने शोगुन शासन का विरोध करना शुरू कर दिया।
 कृषक वर्ग का असन्तोष :
जापान का कृषक वर्ग करों के अत्यधिक भार से दबे होने के कारण अपनी वर्तमान स्थिति से असन्तुष्ट था। सामन्ती व्यवस्था और करों के भार से उसकी दिशा निरन्तर गिरती जा रही थी। साथ-ही पश्चिमी सभ्यता के सम्पर्क के कारण उनमें जागरूकता आने लगी थी। अतः उन्होंने अनेक स्थानों पर विद्रोह करने शुरू कर दिए थे। वे शोगुन शासन को उखाड़कर अपनी स्थिति को सुधारना चाहते थे।
 अन्य सामन्तों द्वारा शोगुन शासन का विरोध :
पश्चिम के देशों के जापान में प्रवेश से उत्पन्न खतरे से मुक्ति पाने के लिए अन्य सामन्तों ने शोगुन शासन व्यवस्था को समाप्त करने का प्रयत्न करना शुरू कर दिया। उनका विचार था कि जापान पर आने वाली सारी विपत्तियों का प्रमुख कारण शोगुन व्यवस्था की अदूरदर्शिता और दुर्बलता है; अत: इसका अन्त किया जाना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि इसी के कारण जापान की स्वतन्त्रता को खतरा उत्पन्न हो रहा है। सामन्तों ने जनता को शोगुनों के विरुद्ध भड़काना शुरू कर दिया। उनको विचार था कि यदि जनमत शोगुन के विरुद्ध हो जाएगा, तब उसका अंकुश अन्य सामन्तों पर ढीला पड़ जाएगा और वे शोगुन की शक्ति को समाप्त कर सकेंगे।
 चोशू सामन्तों और शोगुन सामन्तों में संघर्ष :
चोशू सामन्तों के विदेशियों के प्रति विरोधी , दृष्टिकोण को देखते हुए शोगुन ने उनकी शक्ति को कुचलने का निश्चय किया और एक विशाल सेना की सहायता से उनके विद्रोह का अन्त कर दिया परन्तु सत्सुमा सामन्तों के आड़े आ जाने के कारण शोगुन को अपने रुख को बदलना पड़ा। फिर भी चोशू सामन्तों से यह शर्त रखी गई कि वह अपनी नवगठित सैनिक शक्ति को भंग कर देगा परन्तु जब इन सैनिक दस्तों को भंग करने का प्रयत्न किया गया तो उन्होंने विद्रोह कर दिया तथा राजधानी पर अधिकार कर चोशू में क्रान्ति को भड़का दिया। अतः शोगुन ने फिर से चोशू शक्ति को कुचलने का प्रयास किया। परन्तु शोगुन पर विदेशी प्रभुत्व बढ़ जाने के कारण उसे किसी अन्य सामन्त का समर्थन प्राप्त नहीं था; अत: चोशू सामन्तों के साथ संघर्ष में शोगुन को पराजित होना पड़ा। 7 मार्च, 1866 ई० को विजयी चोशू और सत्सुमा के मध्य एक सन्धि हो गई जिसमें उन्होंने शोगुन शासन को नष्ट करने का निश्चय किया। एक महीने बाद पुत्रविहीन शोगुन की मृत्यु हो गई। तोकुगावा वंश की शाही मितो शाखा का एक बहुत योग्य व्यक्ति नया शोगुन बना। उधर 1867 ई० में विदेश विरोधी सम्राट की भी मृत्यु हो। गई और विगत शत्रुता और परम्पराओं से मुक्त नया सम्राट गद्दी पर बैठा। इस प्रकार वित्तीय समस्याओं से दुःखी, विदेशियों द्वारा प्रताड़ित, आन्तरिक विद्रोह तथा अशान्ति को रोकने में असमर्थ, राजकीय दरबार तथा सामन्तों के सहयोग और समर्थन से वंचित नए शोगुन ने 9 नवम्बर, 1867 ई० को त्याग-पत्र दे दिया। इस प्रकार 250 वर्ष पुराने शोगुन शासन को जापान में अन्त हो गया।
3. मेजी पुनस्र्थापना :
1868 ई० में तोकुगावा शोगुनों के शासन का अन्त हो गया और केन्द्रीय शक्ति पुनः सम्राट के हाथों में आ गई। जापान के सम्राट मुत्सुहितो के शासन काल में यह क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ था। सम्राट मुत्सुहितो 1867 ई० में जापान के सिंहासन पर आसीन हुआ। सम्राट बनने पर उसने मेजी की उपाधि धारण की जिसका अर्थ ‘प्रबुद्ध शासन’ है और वह इसी नाम से जापान के इतिहास में प्रसिद्ध हुआ।

Question - 2 : -
जापान के विकास के साथ-साथ वहाँ की रोजमर्रा की जिन्दगी में किस तरह बदलाव आए? चर्चा कीजिए।

Answer - 2 : -

जापान के विकास के साथ-साथ वहाँ की प्रतिदिन की जिन्दगी में निम्नलिखित बदलाव आए

  1.  1870 के दशक में नवीन विद्यालयी व्यवस्था का निर्माण हुआ। लड़के-लड़कियों के लिए विद्यालय जाना अनिवार्य कर दिया गया।
  2.  पाठ्यपुस्तकों में माता-पिता का सम्मान करने, राष्ट्र के प्रति निष्ठा और अच्छे नागरिक बनने कीप्रेरणा दी गई।
  3.   आधुनिक कारखानों में 50 प्रतिशत महिलाएँ कार्यरत थीं।
  4.  जापान में इकाई परिवार की अवधारणा का विकास हुआ जिसमें पति-पत्नी और बच्चे होते थे।
  5. नए प्रकार के घर, रसोई के उपकरण और मनोरंजन के साधनों का विकास हुआ।

Question - 3 : -
पश्चिमी शक्तियों द्वारा पेश की गई चुनौतियों का सामना छींग राजवंश ने कैसे किया?

Answer - 3 : -

पश्चिमी शक्तियों द्वारा प्रस्तुत की गई चुनौतियों का सामना करने के लिए छींग राजवंश ने एक आधुनिक प्रशासनिक व्यवस्था, नई सेना और शैक्षणिक व्यवस्था के निर्माण के लिए नीति बनाई। संवैधानिक सरकार की स्थापना के लिए स्थानीय विधायिकाओं का गठन किया। चीन को उपनिवेशीकरण से बचाने के प्रयास किए।

Question - 4 : -
सन यात-सेन के तीन सिद्धान्त क्या थे?

Answer - 4 : -

सन यात-सेन 

सन यात-सेन जन्म से ही क्रान्तिकारी थे। उन्होंने मंचू सरकार को हटाकर चीन में गणतन्त्र की स्थापना की थी। वे लोकतन्त्र के समर्थक थे। यह सही है कि डॉ० सेन की राजनीतिक विचारधारा रूस के साम्यवादी दर्शन से बहुत अधिक प्रभावित थी और उन्होंने अपने देश में साम्यवादी ढंग से परिवर्तन लाने का प्रयास भी किया था। फिर भी वे साम्यवादी दर्शन के अन्धभक्त नहीं थे। वे यह अच्छी तरह से जानते थे कि रूस श्रमिकों का देश है और उनका देश चीन किसानों का, इसलिए उन्होंने अपने राजनीतिक विचारों को अपने देश की परिस्थितियों के अनुकूल ही बनाया।

डॉ० सेन के तीन सिद्धान्त

डॉ० सन यात-सेन ने अपने क्रान्तिकारी जीवन के प्रारम्भ से ही अपने राजनीतिक विचारों को तीन सिद्धान्तों के रूप में रख दिया था। ये सिद्धान्त निम्नलिखित थे

राष्ट्रीयता :
चीन में सदियों से जहाँ एक ओर सांस्कृतिक एकता तो मौजूद थी, वहीं दूसरी ओर राजनीतिक एकता को पूर्ण अभाव था। यह अभाव बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भी विद्यमान था। जनता में स्थानीय तथा प्रान्तीय भावनाएँ शक्तिशाली थीं। यही कारण था कि विदेशी साम्राज्यवादी शक्तियाँ चीन में अपना प्रभाव स्थापित करने में सफल हो रही थीं। डॉ० सन यात-सेन
 राजनीतिक लोकतन्त्र :
डॉ० सन यात-सेन लोकतन्त्र के पक्के समर्थक थे। इसी कारण उन्होंने चीन में सदियों से चले आ रहे मंचू राजवंश को समाप्त करके राजवंश की प्राचीन परम्परा को समाप्त कर दिया था। उन्हें जनता की शक्ति में विश्वास था और यही कारण था कि वे लोकतन्त्र के समर्थक थे। उन्होंने अपना अधिकांश जीवन विदेशों के गणतन्त्रीय वातावरण में व्यतीत किया था और स्वयं वहाँ के विकास को देखा था। यही कारण था कि उन्होंने चीन में क्रान्ति करके गणतन्त्र की स्थापना को अपने जीवन का पवित्र लक्ष्य बना लिया था। 1924 ई० में लोकतन्त्र के विषय में उनके विचार बहुत अधिक मजबूत हो गए थे। उनका विचार था “सफल लोकतन्त्र में सरकार की शासन प्रणाली, कानून, कार्य, न्याय, परीक्षा तथा नियन्त्रण के पंच शक्ति विधान पर आधारित होनी चाहिए।’ लोकतन्त्र को सफलता की अन्तिम चोटी पर पहुँचने के लिए सेन ने तीन बातों पर विशेष बल दिया था। सबसे पहले देश में सैनिक शक्ति के प्रभुत्व की स्थापना करके देश में पूरी शान्ति तथा व्यवस्था स्थापित की जाए। इसके बाद देश में राजनीतिक चेतना का प्रसार किया जाए और अन्त में वैधानिक तथा लोकतन्त्रीय सरकार को निर्माण करके देश अपने लक्ष्यों को प्राप्त करें।
जनता की आजीविका :
सन यात-सेन ने मानव जीवन में भोजन की भारी आवश्यकता का अच्छी तरह से अनुभव कर लिया था और यही कारण था कि उन्होंने कृषक वर्ग के उत्थान की ओर अधिक ध्यान दिया। उनका मत था कि ‘भूमि उसकी है जो उसे जोतता है। समाज के अन्य वर्गों की जीविका के प्रश्न का समाधान वे सामाजिक विकास के साथ करना चाहते थे। वे साम्यवादियों के समान भूमि के समान वितरण के सिद्धान्त के पक्ष में थे। इस समय उनकी नीति एक प्रबल साम्यवादी की न होकर एक समाज-सुधारक की नीति थी परन्तु वे मार्क्स के भौतिकवाद के विरोधी थे और अच्छी तरह से यह अनुभव करते थे कि मार्क्स के सिद्धान्तों को चीन में लागू नहीं किया जा सकता है। सन यात-सेन के तीन सिद्धान्तों पर विचार करने के पश्चात् यह स्पष्ट होता है कि डॉ० सेन के सिद्धान्त माक्र्सवाद से बिल्कुल भिन्न थे। सेन के राष्ट्रीयता, लोकतन्त्र और जनता की जीविका के सिद्धान्तों में मार्क्स के वर्ग संघर्ष का कोई स्थान नहीं है और न ही इन सिद्धान्तों में मार्क्स के समाजवादी अर्थतन्त्र की स्थापना के लिए कोई विशेष बल दिया गया है। इससे स्पष्ट हो जाता है। कि सन यात-सेन न तो मार्क्स की शुद्ध समाजवादी विचारधारा के समर्थक थे और न ही साम्यवादी नीति का अन्धानुकरण करने वाले थे। इस प्रकार सन यात-सेन को साम्यवाद का कट्टर समर्थक नहीं कहा जा सकता है।

Question - 5 : -
क्या पड़ोसियों के साथ जापान के युद्ध और उसके पर्यावरण का विनाश तीव्र औद्योगीकरण की जापानी नीति के चलते हुआ?

Answer - 5 : -

जापानी तीव्र औद्योगीकरण की नीति के चलते पड़ोसियों के साथ युद्ध और उसके पर्यावरण के विनाश के कारण निम्नलिखित थे

  1.  जापान तेजी से औद्योगीकरण करना चाहता था। इसके लिए उसे कच्चे माल की आवश्यकता थी। उसे प्राप्त करने के लिए वह उपनिवेश बसाने का इच्छुक था। इस दृष्टि से जापान ने 1895 ई० में ताइवाने पर आक्रमण किया और उसे अपने साम्राज्य में मिला लिया। इसी प्रकार 1910 ई० में कोरिया पर भी अधिकार स्थापित कर लिया। वह इतने से ही सन्तुष्ट नहीं हुआ। उसने 1894 ई० में चीन को पराजित किया और 1905 ई० में रूस से टक्कर ली।
  2.  उद्योगों के तीव्र और अनियन्त्रित विकास और लकड़ी जैसे प्राकृतिक संसाधनों की माँग से पर्यावरण का विनाश हुआ। प्रथम संसद में प्रतिनिधि चुने गए तनाको शोजे ने 1897 ई० में औद्योगिक प्रदूषण के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया जिसमें लगभग 800 लोगों ने भाग लिया।

Question - 6 : -
क्या आप जानते हैं कि माओत्सेतुंग और चीन के साम्यवादी दल ने चीन को मुक्ति दिलाने और इसकी मौजूदा कामयाबी की बुनियादी डालने में सफलता प्राप्त की?

Answer - 6 : -

जिस समय चीन में साम्यवाद के उदय की भूमिका तैयार थी, उसी समय चीनियों को माओत्सेतुंग जैसा क्रान्तिकारी नेता प्राप्त हुआ। माओ में मजदूर वर्ग तथा निम्न वर्ग को संगठित करने की असाधारण क्षमता विद्यमान थी। उसके प्रयासों से वास्तव में चीन में साम्यवाद का उदय और प्रसार हुआ। माओत्सेतुंग ने 1928-1934 के मध्य कुओमीनतांग के आक्रमणों से सुरक्षा के लिए शिविर लगाए। उन्होंने किसान परिषद् का गठन किया और भूमि पर कब्जा किया तथा उसे पुनः लोगों में बाँट दिया। इससे चीन का एकीकरण हुआ। स्वतन्त्र सरकार और सेना पर जोर दिया गया। उसने महिलाओं के कल्याण के लिए अनेक कार्य किए। ग्रामीण महिला संघों की स्थापना पर जोर दिया, विवाह के नए नियम बनाए, विवाह के समझौते, खरीदने और बेचने पर रोक लगा दी। तलाक पद्धति को सरल रूप दिया।

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